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‘Hamare Yatraon ke Madhyam se Himalaya ko Samajhna:
Askot-Aaraakot Abhiyan 1974-84-94-2004 aur 2014 ka anubhav’
by
Prof. Shekhar Pathak,
Former Fellow,
NMML.
1974 में श्री सुन्दरलाल बहुगुणा द्वारा नवस्थापित कुमाऊं तथा गढ़वाल विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को सुझाई गई और मात्र कुछ युवकों द्वारा की गई अस्कोट से आराकोट यात्रा को 1984 में हिमालय अध्ययन को समर्पित समूह पहाड़ द्वारा विस्तृत रुप दिया गया तथा यात्रा में नये क्षेत्रों को जोड़ा गया। यही मार्ग 1994 तथा 2004 के बाद 2014 में प्रचलित रहा। 1984 से ही अन्य अनेक मार्गों में यात्राएं सम्पन्न हुई। 2014 में मुख्य यात्रा में हिस्सेदारों की अधिकता के कारण अनेक उपदल बनाये गये थे, जिससे अनेक नये इलाकों और गांवों में जाने का मौका मिला।
पांचवें अस्कोट-आराकोट अभियान में देश के नौ प्रान्तों और विदेशों के 260 से अधिक यात्रियों ने शिरकत की, जिसमें चार दर्जन से अधिक महिलाएं थी। 36 नदी घाटियों, 5 जनजातीय क्षेत्रों, 6 तीर्थयात्रा मार्गों तथा 2013 की आपदा से ध्वस्त विभिन्न घाटियों से गुजरी इस यात्रा की शुरुआत 25 मई 2014 को टिहरी रियासत के संग्रामी श्रीदेव सुमन के जन्म दिन को पांगू (पिथौरागढ़) में श्री चंडी प्रसाद भट्ट द्वारा की गई थी, जो यात्रा में एक सप्ताह रहे। उन्होंने यात्रा को ‘जंगम विद्यापीठ’ कहा। 45 दिनों में सात जिलों के 350 से अधिक गांवों का स्पर्श ले कर 1150 किमी. लंबे अभियान का 8 जुलाई 2014 को आराकोट (उत्तरकाशी) में समापन हुआ। तीन अन्य सहयोगी समूहों ने रामगंगा-सरयू; मन्दाकिनी घाटी तथा देहरादून में स्वतंत्र यात्राएं की।
अभियान में कई चैंकाने वाले तथ्य सामने आए। प्रदेश में शिक्षा के प्रति लड़कियों में बढ़ता रुझान, आशा की किरण है तो दूरस्थ क्षेत्रों में भी शिक्षा के बाजारीकरण के लक्षण दिखाई देना चिंता का विषय। पहाड़ों मंे स्वास्थ्य सेवाएं भगवान भरोसे हंै। महाआपदा के एक साल बाद भी प्रभावित क्षेत्र त्रासदी से जूझ रहे हैं। पलायन से पहाड़ का कोई क्षेत्र मुक्त नहीं है। चार धाम, हेमकंुड और कैलाश-मानसरोवर सहित अन्य परंपरागत यात्रा मार्ग, ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थल उपेक्षा झेल रहे हैं। कुछ सीमान्त गांव मोटर हैड से 20-25 किमी. दूर हैं तथा पैदल मार्ग उपेक्षित हैं। नदियों में पुल नहीं हैं। सीमांत क्षेत्र या तो संचार सुविधा से वंचित हंै या हिमाचल और नेपाल पर निर्भर हैं। कुछ क्षेत्रों में कीड़ा जड़ी (यारसागुंबू) नया आर्थिक स्रोत बनी है, लेकिन दोहन की कोई नीति नहीं है। अनेक स्थानों में ग्रामीणों ने अपने उद्यम या आन्दोलनों के जरिये महत्व के काम किये हैं और अपनी समस्याएं सामने रखी हैं।
अस्कोट-आराकोट अभियान 1974 से हमने हिमालय को पढ़ना और जानना शुरु किया था, जिसे 1984, 1994, 2004 और 2014 के अभियानों में अधिक गहनता और गहराई मिलती गई। इस क्रम में भारतीय हिमालय के अन्य हिस्सों के साथ साथ नेपाल, भूटान और तिब्बत की यात्राएं की गई। इन यात्राओं में भी जानने और सीखने की ललक अस्कोट-आराकोट अभियान जैसी ही थी। इन यात्राओं ने हमें हिमालय की प्राकृतिक-जैविक, सामाजिक-सांस्कृतिक तथा पारिस्थितिक विविधता तथा हैशियत को भारतीय तथा एशियाई परिप्रेक्ष्य में समझने का मौका दिया।
उत्तराखंड तथा हिमालय के अनेक हिससों की विविध मामलों में तुलना के अनेक संदर्भ हमारे पास थे। उनका उपयोग होता रहा। अस्कोट-आराकोट अभियानों का क्रम मूलतः उत्तराखंड केन्द्रित रहा है। अतः इन्हें उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में देखना ही उचित होगा। इन यात्राओं के साथ 1974 में ‘चिपको आन्दोलन’, 1984 में ‘नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन’, 1994 में ‘उत्तराखंड राज्य आन्दोलन’ तथा 2004 में ‘गैरसैण में राजधानी स्थापना के आन्दोलन’ को देखना उत्तराख्ंाड के समकालीन सामाजिक आन्दोलनों की समझ देता है। 2014 में 2013 की आपदा के दुष्परिणामों तथा अनेक आक्रोशों की उपस्थिति के बावजूद किसी उत्तराखंड व्यापी आन्दोलन की अनुपस्थिति और राज्य में नये मुख्यमंत्री तथा देश में नये प्रधानमंत्री के आगमन के दौर में एक ‘डर भरी उम्मीद’ को उत्तराख्ंाड में महसूस किया जा सकता है। नए राज्य के 14 साल अंतिम दो यात्राओं ने देखे हैं। अतः ‘उत्तर प्रदेश में उत्तराखंड’ तथा ‘उत्तराखंड में उत्तराखंड’ को देखने और तुलना करने का मौका भी यह अभियान देता है।
सार रुप में ये यात्राएं भूगोल-भूगर्भ, इतिहास-समाज, भाषा-संस्कृति, पर्यावरण-विकास, आपदा के विविध स्वरुपों, पलायन और आर्थिकी के अनेक पक्षों को प्रत्यक्ष समझने का मौका देती हैं। दशकवार परिवर्तन के मिजाज को पकड़ना संभव होता है तो ठहराव के अंश भी समझे जा सकते हैं। परिवर्तन को व्यक्ति, गांव, घाटी, समुदाय, संस्था या विकास कार्य के बरक्स भी देखा जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन यात्राओं के हिस्सेदारों ने इन यात्राओं से वह सब सीखा, जो वे किताबों से नहीं सीख सके थे। ‘कागज की लेखी’ और ‘आंखन की देखी’ का फर्क समझने के साथ वे एक मौलिक नजर से पहाड़ों को देखने-विश्लेषित करने का विवेक अर्जित कर सके। बहुत से साथियों ने अपने कार्य को इन यात्राओं से दिशा दी।
प्रो. शेखर पाठक, कुमाऊं विश्वविद्यालय में अध्यापक रहें। उन्होंने हिमालय तथा उत्तराखण्ड के इतिहास पर कार्य किया और कर रहे हैं - विशेष रुप से औपनिवेशिक युग पर। कुली बेगार प्रथा, जंगलात आन्दोलन, राष्ट्रीय संग्राम, पत्रकारिता, व्यक्तित्व, समाज-संस्कृति तथा भौगोलिक अन्वेषण पर उनका शोध कार्य सराहा गया है। हिमालय के सतत यात्री और अध्येता के रुप में भी उन्हें मान्यता मिली। अभी आप पहाड़ संस्था के सहयोगी हैं और अनियतकालीन प्रकाशन पहाड़ के संपादक भी। आप भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला तथा नेहरु स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय, दिल्ली के पूर्व फेलो हैं।